Oscar जीतना बहुत से film makers और फिल्मचाहकों का सपना है। कई कारणवश हम ऑस्कर जीतते जीतते रह जाते है। एसा भी नहीं की टेलेंट की कुछ कमी है। लेकिन ईतने दशकों से विश्व में सर्वाधिक फिल्में बनाने के बावजूद हम ऑस्कर पाने में सफल नहीं हुए। कारण कई है, लेकिन हम जब तक ऑस्कर जीतते नहीं ईन कारणों को दुनिया सिर्फ बहानें कहेंगी। आईए देखते है कुछ एसी फिल्में जो ऑस्कर जीत सकती थी।
सलाम बोम्बे
मीरा नायर की 1988 में बनी फिल्म सलाम बोम्बे एक एसी फिल्म थी जो मुंबई के स्लम विस्तार में बनाई गई थी। ईस फिल्म में नाना पाटेकर, अनीता कंवर और रघुवीर यादव मुख्य भुमिका में थे और कहानी का हीरो एक बच्चा था - सफीक सैयद।
ईतना तो सबको पता ही होगा लेकिन एक ओर बात थी जो काफी कम लोगों को पता थी। ईतनी बेतरीन फिल्म का बाल कलाकार सफीक सैयद एक-दो फिल्म के बादकहां गया यह किसी ने जानने की कोशिश नहीं की! बारह साल बाद बेंगलोर के एक प्रमुख अखबारने ने उस ऑटो ड्राईवर का ईन्टर्व्यु किया जो यह सलाम बोम्बे का एक्टर था। यह ईन्टर्व्यु ईस लिए लिया गया था क्युं की उस वक्त स्लम डॉग मिलेनियर फिल्म हीट हुई थी और सब लोग विष्य वस्तु में समानता होने के कारण ईस पुरानी फिल्म को याद कर रहे थे।
भले वह फिल्म उस दौर का जीवन, तकलीफें और दर्द दर्शाती थी, मुझे लगता है की सलाम बोम्बे अपने समय से आगे की फिल्म थी। अगर आपने यह फिल्म नहीं देखी तो जरुर देखें। और फिर स्लम डॉग मिलेनियर फिल्म से तुलना कर के हमें कोमेन्ट सेक्शन में अपनी राय दें।
तुंबाड
तुंबाड एक एसी फिल्म है जिसे बनने में छ साल लगे! एक बार यह बनी तो सही लेकिन निर्माता को यह लगा की फिल्म और बेहतर बन सकती थी। फिल्म ईन्डस्ट्री में कभी एसा सुना है की केवल ईसे वजह से पुरी फिल्म री-शूट की गई हो? सिर्फ अपने काम के बखान कर के या अगर अधिक समज़दार हो तो खुद की निंदा कर के लोग निकल लेतें है। लेकिन कभी री-शूट नहीं करते! क्युं की ईस में पैसा लगता है और जितनी की थी उतनी ही मेहनत लगती है!
लेकिन तुंबाड फिल्म दोबारा शूट की गई और फिर दो-ढाई साल ईस पर पोस्ट प्रोडक्शन का काम हुआ। आप सबको तो पता ही होगा की कैसे बरसात के सारे सीन असल बरसात और लाईटींग में शुट कीए गए है। एक सीन में जब हीरो फानुस लिए गुफा में जा रहा था वह सीन भी केवल एक सच्चे फानुस से ही प्रकाशित किया गया था। एसी ही वास्तविकता हस्तर को देने के लिए ईतना बढिया एनिमेशन किया गया की सारी एनिमेशन के जानकार ईस के गुण गाने लगे।
हमें क्या है भई? हमने तो फिल्म देखी, वाहवाही की और चल दिए। ईस फिल्म को बह्त कुछ मिलना चाहिए था। 'शिप ऑफ थिसियस" में एक्टर के रुप में काम कर चुके सोहम शाह की यह खुद की पहली कोशिश थी। आशा है की वह फिर से ईतनी कोशिश कर के अच्छी फिल्म बनाएंगे....ताकी हम फिर से उसे ऑस्कर में ना भेजें!
'शिप ऑफ थिसियस' एक एसी फिल्म थी जिसे किरन राव के कारण अपनी पहचान मिल पाई। यह फिल्म भी ऑस्कर के काबिल थी। लेकिन पता नहीं क्युं यह फिल्म ईस सुची में शामिल नहीं कर पा रहा हुं। लेकिन ईसका ज़िक्र यहां जरुरी था। आप क्या सोचतें हे ईन दोनो फिल्म के बारे में?
अ वेडनसडे
ईस फिल्म का नाम कोई ओर क्युं नहीं था? में बताउं? ईसी फिल्म का डाईलोग है, "लोग नाम में अपना मझहब ढुंढ लेते है!"
यह फिल्म में कोई जवान हीरो नहीं था, ना ही कोई आईटम सोंग, ना कोई स्लो मोशन स्टाईलिश एक्शन सीक्वन्स। फिर भी यह फिल्म अपने बेहतरीन स्क्रीप्ट की वजह से दर्शको के दिलो-दिमाग पर छा गई।
में मानता हुं की यह फिल्म ओस्कर के हिसाब से शायद एक-दो मार्क्स कम हो... लेकिन उस वर्ष की भारत की सर्वश्रेष्ठ फिल्म थी!
स्वदेश
यह आशुतोष गोवारीकर की सर्वश्रेष्ठ फिल्म है। गांव का वातावर दर्शाती यह फिल्म कई कठोर सच्चाईयों को दर्शक के सम्मुख ले आती है। शाहरुख जैसा सुपरस्टार और रहेमान के सुपरहीट गानों के बावजुद२१ करोड में बनी यह फिल्म सिर्फ ३४ करोड़ कमा कर सीमट गई। फिर कोई दिग्दर्शक या निर्माता अच्छी फिल्म बनाने के बारे में क्युं सोचे?
बंदिनी
आज की फिल्मों की परिभाषा में पर यह नारी प्रधान फिल्म मोडर्न ना सही बोल्ड जरुर कही जा सकती है। अब यहां बोल्ड का अर्थ ऐसी ना ले लेना जो आज की फिल्में बोल्ड लेबल के नीचे आती है। ईस फिल्म का विषय बहुत अलग था। ईस की कहानी बता कर मैं दर्शको का मज़ा बिगाड़ना नहीं चाहता....लेकिन एक छोटा सा स्पॉईलर तो बनता है बिमल रॉय की विषय चुनने की निर्भीकता के लिए। वह है....प्रारंभ में ही पता चलता है की हीरोईन अपने पति का खुन कर के जेल काट रही है! यह फिल्म का ओपनींग सीन है। अब आगे देखिते रहीएगा की क्या का होता है। ईस का एक गीत "मोरा गोरा अंग लई ले" गुलज़ारजी का सबसे पहला फिल्मी गीत है।
दो आँखें बारह हाथ
व्ही. शांताराम की यह फिल्म भारतीय २५ देखनेलायक फिल्मों की सुची में गौरवांवीत है। ईस फिल्म ने कई देशो में अपनी छाप छोडी और बर्लीन फेस्टीवल में ईनाम भी जीता। ईस का "ए मालिक तेरे बंदे हम" पुरे छह दशक बाद भी सबको जबानी याद है। ईस फिल्म की प्रेरणा व्ही. शांतारामजी को ध ओपन प्रीझन नामक एक ईंग्लेन्ड की एक कहानी से मिली थी। ईस फिल्म की सफलता के बाद ईस फिल्म की दक्षिण भारत में दो रिमेक भी बनी थी।
कागज़ के फुल
गुरुदत्त पहले से ही बहुत संजीदा किस्म के कलाकार रहें होंगे एसा मुझे लगता है। अत्यंत सुंदर वहीदा रहेमान के साथ उनकी यह फिल्म एक आईकोनीक फिल्म है। फिल्म में कहानी को उभारने का जो प्रयत्न किया गया है वह बहुत सुंदर है। फिर भी शायद यह फिल्म आज के दौर में स्क्रीप्ट के माममे में थोडी सी धीमी लगे लेकिन उस दौर के लिए वह फिल्म बहुत आगे थी।
आनंद
आनंद ह्रिषिकेश मुकर्जी की सर्वोत्तम फिल्म कही जा सकती है। यह फिल्म देखने में आज भी उतनी ही फ्रेश लगती है जितनी पहले लग रही होगी। ईस फिल्म को हम सबने देखा ही होगा और वर्ल्ड सिनेमा के लिहाज़ से भी यह एक उत्तम फिल्म है। अगर आपका कोई विदेशी मित्र फिल्मों का शौकीन हो, तो आप ईसे यह फिल्म देखने को जरुर कह सकते है।
खुश्बु
बहुत शरमींदगी के साथ यह फिल्म का यहां समावेश कर रहा हुं! शरमींदगी ईसलिए क्युं की मुझे लगता है की अपनी मनपसंद फिल्म का नाम एसे लिस्ट में जोड़ देना कहीं मेरा ईस फिल्म को अधिक पसंद करना तो नहीं! लेकिन मेरे कुछ मुद्दे है जो ईस फिल्म को ऑस्कार के लिए नामांकित करता है...मेरी ओर से!
पहला मुद्दा यह है की ऑस्कार विजेता फिल्में बहुत बार किसी पुस्तक के उपर से बनाई गई होतीं है - खुश्बु एक बंगाली साहित्यकार सरतचंद्र के उपन्यास पर आधारित है। दुसरा मुद्दा यह है की किसी वैश्विक या सामाजिक विषय ज्यादातर पसंद किए जातें है - खुश्बु एक नारी प्रधान फिल्म है और उसका पति डॉक्टर है जो पुरे गांव को हैज़े की महामारी से बचा रहा है। ईस तरह सामाजिक और वैश्विक दोनों विषय ईस में है। ईस लिए यह फिल्म ईस सुची में शामिल है। अगर आपने यह फिल्म नहीं देखी तो ज़रुद देखिएगा। और मुझे कोमेन्ट कर के बताईएगा की मेरा चयन ठीक था या गलत!
ईस के सिवा गाईड, आनंद, आग जैसी कई फिल्में है। जिनका जिक्र आगे नए लिस्ट में जरुर आएगा। आप अपनी राय और सुझाव जरुर दें।
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